Lekhika Ranchi

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रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाएं


5
राजा का मन हुआ कि एक बार चलकर अपनी आँखों से यह देखें कि शिक्षा कैसे धूमधड़ाके से और कैसी बगटुट तेज़ी के साथ चल रही है । सो, एक दिन वह अपने मुसाहबों, मुँहलगों, मित्रों और मन्त्रियों के साथ आप ही शिक्षा-शाला में आ धमके ।
उनके पहुँचते ही ड्योढ़ी के पास शंख, घड़ियाल, ढोल, तासे, खुरदक, नगाड़े, तुरहियाँ, भेरियाँ, दमामें, काँसे, बाँसुरिया, झाल, करताल, मृदंग, जगझम्प आदि-आदि आप ही आप बज उठे ।
पण्डित गले फाड़-फाड़कर और बूटियां फड़का-फड़काकर मन्त्र-पाठ करने लगे । मिस्त्री, मजदूर, सुनार, नक़लनवीस, देख-भाल करने वाले और उन सभी के ममेरे, फुफेरे, चचेरे, मौसेरे भाई जय-जयकार करने लगे ।
भानजा बोला, ''महाराज, देख रहे हैं न?''
महाराज ने कहा, ''आश्चर्य! शब्द तो कोई कम नहीं हो रहा!
भानजा बोला, ''शब्द ही क्यों, इसके पीछे अर्थ भी कोई कम नहीं!''
राजा प्रसन्न होकर लौट पड़े । ड्योड़ी को पार करके हाथी पर सवार होने ही वाले थे कि पासके झुरमुट में छिपा बैठा निन्दक बोल उठा, ''महाराज आपने तोते को देखा भी है?''
राजा चौंके। बोले, ''अरे हाँ! यह तो मैं बिलकुल भूल ही गया था! तोते को तो देखा ही नहीं! ''
लौटकर पण्डित से बोले, ''मुझे यह देखना है कि तोते को तुम पढ़ाते किस ढंग से हो ।''
पढ़ाने का ढंग उन्हें दिखाया गया । देखकर उनकी खुशी का ठिकाना न रहा । पढ़ाने का ढंग तोते की तुलना में इतना बड़ा था कि तोता दिखाई ही नहीं पड़ता था । राजा ने सोचा : अब तोते को देखने की जरूरत ही क्या है? उसे देखे बिना भी काम चल सकता है! राजा ने इतना तो अच्छी तरह समझ लिया कि बंदोबस्त में कहीं कोई भूल-चूक नहीं है । पिंजरे में दाना-पानी तो नही था, थी सिर्फ शिक्षा । यानी ढेर की ढेर पोथियों के ढेर के ढेर पन्ने फाड़-फाड़कर कलम की नोंक से तोते के मुँह में घुसेड़े जाते थे । गाना तो बन्द हो ही गया था, चीरने-चिल्लाने के लिए भी कोई गुंजायश नही छोड़ी गयी थी । तोते का मुँह ठसाठस भरकर बिलकुल बन्द हो गया
था । देखनेवाले के रोंगटे खड़े हो जाते ।
अब दुबारा जब राजा हाथी पर चढ़ने लगे तो उन्होंने कान-उमेठू सरदार को ताकीद कर दी कि ''निन्दक के कान अच्छी तरह उमेठ देना!''

6
तोता दिन पर दिन भद्र रीति के अनुसार अधमरा होता गया। अभिभावकों ने समझा कि प्रगति काफी आशाजनक हो रही है । फिर भी पक्षी-स्वभाव के एक स्वाभाविक दोष से तोते का पिंड अब भी छूट नहीं पाया था । सुबह होते ही वह उजाले की ओर टुकुर-टुकुर निहारने लगता था और बड़ी ही अन्याय-भरी रीति से अपने डैने फड़फड़ाने लगता था । इतना ही नहीं, किसी-किसी दिन तो ऐसा भी
देखा गया कि वह अपनी रोगी चोंचों से पिंजरे की सलाखें काटने में
जुटा हुआ है ।
कोतवाल गरजा, ''यह कैसी बेअदबी है !''
फौरन लुहार हाजिर हुआ । आग, भाथी और हथौडा लेकर ।
वह धम्माधम्म लोहा-पिटाई हुई कि कुछ न पूछिये! लोहे की सांकल तैयार की गई और तोते के डैने भी काट दिये गए ।
राजा के सम्बन्धियों ने हाँड़ी-जैसे मुँह लटका कर और सिर हिलाकर कहा, ''इस राज्य के पक्षी सिर्फ बेवकूफ ही नही, नमक- हराम भी हैं ।''
और तब, पण्डितों ने एक हाथ में कलम और दूसरे हाथ मे बरछा ले-लेकर वह कांड रचाया, जिसे शिक्षा कहते हैं ।
लुहार की लुहसार बेहद फैल गयी और लुहारिन के अंगों पर सोने के गहनें शोभने लगे और कोतवाल की चतुराई देखकर राजा ने उसे सिरोपा अता किया ।

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